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Thursday, 28 November 2024

पावस प्रणय

 पावस प्रणय

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पावस निशि के सन्नाटों में, वृत्तांत हमारे गूँजित हैं

भेकों के रिमझिम गानों से, लालित्य सदा अभिव्यंजित हैं

पावस विभावरी की यादें, हमने भी बहुत सँभाली हैं

कुछ मुझमें अन्वित हैं साथी, कुछ अनुभव तुमने पाली हैं॥१॥


हो ज्ञात अगरचे संस्तुति के, कुछ पद्य हमें बतलाओ तो

अनुशंसा में जो-जो गाया, गा-गाकर मुझे सुनाओ तो

गत्वर-गैरेय, सघन-निर्जन, नंदन-कानन सब गीले थे

घनघोर घटा थी बरस रही, धरती के कण-कण गीले थे॥२॥


एकांत पलों में रजनी के, पीयूष कणों का वर्षण था

थीं दसों दिशाएँ अचल खड़ी, दिक में बूँदों का घर्षण था

चुप थी जिह्वा लाचार मगर, हर अंग तेज अनुबंधित था

उस नीम निशा के अंकों में, सोना हमको प्रतिबंधित था॥३॥


दुर्गम विपदा में हम दोनों, नीरव-अभ्यर्थन कर बैठे

हिय की किंचित मर्यादा को, हम मौन-तिलांजलि दे बैठे

संबंधों की तुम अहोभाव, सौभाग्य मनस्वी बन बैठा

शोणित अधरों पर प्रियतम के, मुस्कान यशस्वी बन बैठा॥४॥


छाईं थीं यमक-यामिनी सी, प्रिय तुम मेरे अंतर्मन में

जगीं तिमिर में तथा सिमटकर, सोई थीं सूने से मन में

घनघोर वृष्टि से संसृति के, दावानल तृप्त हुए जाते

 छँटते ही कृष्ण घटाओं के, तारक वदनांबुज खिल जाते॥५॥


मर्माहत मानस को झुठला, हम जिन यादों को बोये हैं

क्या विगत दिनों के वे प्रमाण, अनहद अनंत में खोये हैं?

अब व्यष्टि मानकर बंद करूँ, आँखों के मृतक कपाटों को

या चिर समष्टिगत मान तुम्हें, मैं धो लूँ हिय के घाटों को?॥६॥


स्वागत में मैले मन-आँगन, शुचि गंगाजल से धो डालूँ

रूखे मन सिंचित कर-कर के, तारों की फलियाँ बो डालूँ

स्वीकृत यदि पुनः मिलन प्रियतम! संबोधित कर दूँ सावन को

नामांकित हृदयस्थल कर दूँ, संभाव्य मेल  मनभावन हो॥७॥


अभिनंदन में प्रिय फिर से मैं, बीते मधुमास बुलाऊँगा

करतल पर भग्नहृदय को ले, मैं मेघ रागिनी गाऊँगा

वय के उत्कर्षों पर लेकिन, ये कैसे बादल छाए हैं

प्रिय! दो चंद्रों के बीच कहो, ये खंजन कैसे आए हैं?॥८॥

...“निश्छल”

Friday, 15 November 2024

पावस विभावरी छाई थी

 

पावस विभावरी छाई थी



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सर्वत्र क्षितिज के माथे पर

चहुँओर यामिनी फैली थी;

पावस विभावरी छाई थी

चंदा की आँखें मैली थीं।

अपनी गुरुता के गान करे

सौजन्य चाँद को ज्ञापित था;

लेकिन दर्पों के सर्पों से

असहाय चंद्र अभिशापित था॥१॥


छल-छद्म-छली, बहुरूप धरे

नभ-प्राचीरों पर गाता था;

उन्मुक्त, निरंकुश हो-होकर

उदयाचल को ही जाता था।

योजन भर जाकर लौट पड़ा

मति, भ्रमित हुई, उकताया था;

पापी था पंच प्रकारों का

जो चाँद गगन में छाया था॥२॥


अंगार भरे द्वय लोचन से

बूँदों के झरने झरते थे;

उन्हीं बूँदों में डूब -डूब

चंदा के सपने मरते थे।

चंदा के मरणासन्न स्वप्न

रह-रह उसको उकसाते थे;

लोचन से झरकर पुनः अंबु

उसके नयनों में छाते थे॥३॥


कृशकाय हुआ, विच्छिन्न हुआ

निरुपाय चाँद अनुरागी था;

निस्सीम प्रेम का परिचायक

लेकिन मयंक हतभागी था।

जो निमिष मात्र के व्रण मेरे

अंबर से देखा, सिहर गया

आहत चंदा, निज नयनों से

मेरे दुख देखा, बिखर गया॥४॥


करुणार्द्र कंठ से वाणी के

संतुलित शब्द सब हीन हुए;

नभ में बसने वाले उडगन

अत्यल्प काल में दीन हुए।

रो पड़ा चाँद मेरे दुख से

कुछ यादें बड़ी कसैली थीं;

पावस विभावरी छाई थी

चंदा की आँखें मैली थीं॥५॥

...“निश्छल”

Sunday, 13 October 2024

सृष्टि प्रदीपन हेतु धरा पर

 सृष्टि प्रदीपन हेतु धरा पर


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सृष्टि प्रदीपन हेतु धरा पर

युग-युग के अवतारी जय।

मूल-नियंता, सर्व दयामय

ईश, परम अविकारी जय।।

मंगलकारक, विमल प्रबोधन

अविनाशी, भयहारी जय।

श्री-नारायण ईश परायण

वासुदेव, गिरिधारी जय।।


शाश्वत परमेश्वर नमनऽखिलेश्वर, परमात्मन ऋषिकेश।

पयनिधि सुर-शयनं, सुखकर अयनं, वासुदेव करुणेश।।

पद-पूज्य गिरीशं, नमत हरीशं, अच्युत शेष-अशेष।

जय आनंदकुंजं विमलनिकुंजं, नारायण गरुणेश।।

लक्ष्मी संग वंदन अलखनिरंजन, उद्भव स्वतः सुजान।

जय त्रिभुवन स्वामी, अंतर्यामी, मायापति भगवान।।


तप हेतु भजं त्वं ऋषि-मुनि संतं, गूँजत दस दिक नाम।

परमारथवादी अति अनुरागी, मंजुल मूरति धाम।।

निर्मित निज माया, सगुण सकाया, निर्गुण भगति विराम।

जड़-चेतनवासी प्रभु दुखनाशी, भजौ तुभ्य अविराम।।

सीता संग वंदन दशरथनंदन, जय श्री सीताराम।

जय परम पुनीतं ज्ञानाधारं, जगदीश्वर श्रीराम।।


श्रीयुत योगेश्वर हृदय मठेश्वर, द्वापर तारनहार।

गीता-श्रुति दर्पण, कर जग अर्पण, विश्वरूप साकार।।

वर्णित श्रुति वर्णम्, पुनः अवर्णम्, श्यामल स्नेहागार।

लघुरूपऽगम्यं, वृहद सुरम्यं, निर्गुण निःआकार।।

राधारमणीयं, सर्वतुरीयं, मंगलमय सरकार।

जय कृष्ण भजं त्वं, मायाकंतं, स्वयंमेव ओंकार।।

...“निश्छल”

Thursday, 13 June 2024

जय विंध्याचल वाली

जय विंध्याचल वाली

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जिसके दर पर ध्यावें मुनि गण, जो वर देने वाली;
शमित करो माँ जग की पीड़ा, जय दुर्गे, माँ काली।

सृजित किया जब सृष्टि विधाता
तुमको ही तब ध्यान कर
पालन करते हरि तृण-तृण का
अनुमति तेरी मानकर,
हरते हैं शिव रौद्ररूप में, कुदरत तब गतिवाली;
शमित करो माँ जग की पीड़ा, जय अंबे, माँ काली।

स्वर्ग-नर्क के केंद्र टूटते
ध्यान धरें सुख त्यागकर
जन्म-मरण के भव बंधन पर
मातु सुदर्शन वार कर,
ज्ञानीजन को ज्ञान रूप में, दर्शन देनेवाली;
शमित करो माँ जग की पीड़ा, जय विमला, माँ काली।

शेरोंवाली की महिमा तो
परिमित नहीं, अनंत है
मातु दरस से आह्लादित जो
भक्त बड़ा वह संत है,
ध्यावौं तुझको हर पल माता, वंदन खप्परवाली;
शमित करो माँ जग की पीड़ा, जय लक्ष्मी, माँ काली।

कलि की कुत्सित छाया छायी
तीनों भुवन में गहरी
मातु हरो यह विपद बड़ी है
चिह्नित गरल है ठहरी,
क्षीण करो माँ खड्ग धार से, शिव आयुध कर वाली;
शमित करो माँ जग की पीड़ा, रौद्रमुखी, माँ काली।

अविरत विनती करता हूँ मैं
सकल कामना त्यागकर
मनोकामना पूरी कर माँ
जग का अब कल्याण कर,
कलिमल अवगुण फैल चुके हैं, दुर्दिन बन, जंजाली;
शमित करो माँ जग की पीड़ा, जय विंध्याचल वाली।
...“निश्छल”
(रचनाकाल-२०१८)

शिव! शशि को धारण करके

शिव! शशि को धारण करके
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शिव! शशि को धारण करके, सौभाग्य पुनः रच देना
हर दुखियारे का जीवन, प्रभु, मंगलमय कर देना।

वैभव के दाता, हे शिव!
हर दंश-दमन के कारक,
भक्तों के आश्रयदाता
हर! तुम ही कष्ट निवारक।
जीवन की आभा धूमिल, सत्संग-विरत हो बैठी
अनुगत अपने शशिशेखर, वैभवशाली कर देना।
शिव! शशि को धारण करके...

मतभेद समय का सत्वर
हम हैं निरीह से प्राणी,
अमरत्व अमिय का देकर
कर देना पावन वाणी।
कैसी अनीतियों का युग, चहुँ ओर अनिष्ट-विचारी
है पतित हुई मानवता, डमरू की ध्वनि कर देना।
शिव! शशि को धारण करके...

हे आदिदेव, संहारक
हे वरदहस्त, प्रतिपालक,
आशीष अभय का देते
भोले! कुरीति के घालक।
हम अर्थ लगाकर मोहित, सांसारिक संवेदन में
अर्थहीन मंतव्यों को, अति दूर स्वयं कर देना।
शिव! शशि को धारण करके...

शिव! मौन रूप में बैठे
साधक बन शैल शिखा पर,
शोभित होती हैं गंगा
मस्तक पर सजे निशाकर।
इस मूढ़ हृदय की सारी, विह्वलता को हर लेना
हर दुखियारे का जीवन, प्रभु, मंगलमय कर देना।
शिव! शशि को धारण करके...
...“निश्छल”
(रचनाकाल-२०१९)