पावस प्रणय
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पावस निशि के सन्नाटों में, वृत्तांत हमारे गूँजित हैं
भेकों के रिमझिम गानों से, लालित्य सदा अभिव्यंजित हैं
पावस विभावरी की यादें, हमने भी बहुत सँभाली हैं
कुछ मुझमें अन्वित हैं साथी, कुछ अनुभव तुमने पाली हैं॥१॥
हो ज्ञात अगरचे संस्तुति के, कुछ पद्य हमें बतलाओ तो
अनुशंसा में जो-जो गाया, गा-गाकर मुझे सुनाओ तो
गत्वर-गैरेय, सघन-निर्जन, नंदन-कानन सब गीले थे
घनघोर घटा थी बरस रही, धरती के कण-कण गीले थे॥२॥
एकांत पलों में रजनी के, पीयूष कणों का वर्षण था
थीं दसों दिशाएँ अचल खड़ी, दिक में बूँदों का घर्षण था
चुप थी जिह्वा लाचार मगर, हर अंग तेज अनुबंधित था
उस नीम निशा के अंकों में, सोना हमको प्रतिबंधित था॥३॥
दुर्गम विपदा में हम दोनों, नीरव-अभ्यर्थन कर बैठे
हिय की किंचित मर्यादा को, हम मौन-तिलांजलि दे बैठे
संबंधों की तुम अहोभाव, सौभाग्य मनस्वी बन बैठा
शोणित अधरों पर प्रियतम के, मुस्कान यशस्वी बन बैठा॥४॥
छाईं थीं यमक-यामिनी सी, प्रिय तुम मेरे अंतर्मन में
जगीं तिमिर में तथा सिमटकर, सोई थीं सूने से मन में
घनघोर वृष्टि से संसृति के, दावानल तृप्त हुए जाते
छँटते ही कृष्ण घटाओं के, तारक वदनांबुज खिल जाते॥५॥
मर्माहत मानस को झुठला, हम जिन यादों को बोये हैं
क्या विगत दिनों के वे प्रमाण, अनहद अनंत में खोये हैं?
अब व्यष्टि मानकर बंद करूँ, आँखों के मृतक कपाटों को
या चिर समष्टिगत मान तुम्हें, मैं धो लूँ हिय के घाटों को?॥६॥
स्वागत में मैले मन-आँगन, शुचि गंगाजल से धो डालूँ
रूखे मन सिंचित कर-कर के, तारों की फलियाँ बो डालूँ
स्वीकृत यदि पुनः मिलन प्रियतम! संबोधित कर दूँ सावन को
नामांकित हृदयस्थल कर दूँ, संभाव्य मेल मनभावन हो॥७॥
अभिनंदन में प्रिय फिर से मैं, बीते मधुमास बुलाऊँगा
करतल पर भग्नहृदय को ले, मैं मेघ रागिनी गाऊँगा
वय के उत्कर्षों पर लेकिन, ये कैसे बादल छाए हैं
प्रिय! दो चंद्रों के बीच कहो, ये खंजन कैसे आए हैं?॥८॥
...“निश्छल”
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