पावस विभावरी छाई थी
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सर्वत्र क्षितिज के माथे पर
चहुँओर यामिनी फैली थी;
पावस विभावरी छाई थी
चंदा की आँखें मैली थीं।
अपनी गुरुता के गान करे
सौजन्य चाँद को ज्ञापित था;
लेकिन दर्पों के सर्पों से
असहाय चंद्र अभिशापित था॥१॥
छल-छद्म-छली, बहुरूप धरे
नभ-प्राचीरों पर गाता था;
उन्मुक्त, निरंकुश हो-होकर
उदयाचल को ही जाता था।
योजन भर जाकर लौट पड़ा
मति, भ्रमित हुई, उकताया था;
पापी था पंच प्रकारों का
जो चाँद गगन में छाया था॥२॥
अंगार भरे द्वय लोचन से
बूँदों के झरने झरते थे;
उन्हीं बूँदों में डूब -डूब
चंदा के सपने मरते थे।
चंदा के मरणासन्न स्वप्न
रह-रह उसको उकसाते थे;
लोचन से झरकर पुनः अंबु
उसके नयनों में छाते थे॥३॥
कृशकाय हुआ, विच्छिन्न हुआ
निरुपाय चाँद अनुरागी था;
निस्सीम प्रेम का परिचायक
लेकिन मयंक हतभागी था।
जो निमिष मात्र के व्रण मेरे
अंबर से देखा, सिहर गया
आहत चंदा, निज नयनों से
मेरे दुख देखा, बिखर गया॥४॥
करुणार्द्र कंठ से वाणी के
संतुलित शब्द सब हीन हुए;
नभ में बसने वाले उडगन
अत्यल्प काल में दीन हुए।
रो पड़ा चाँद मेरे दुख से
कुछ यादें बड़ी कसैली थीं;
पावस विभावरी छाई थी
चंदा की आँखें मैली थीं॥५॥
...“निश्छल”
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